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Friday, June 17, 2011

छोड़ो सच की धूप

दरबारी सारे रोज की तरह चुप 
राजा के गुस्से का कौन करे सामना 
 भरे दरबार कई  बार आया सच 
कॉलर पकड़ पकड़ मुझे झकझोरा 
चीखा मुझ पर चिल्लाया 
बोलने को मुझे उकसाया 
मगर में रोज की तरह चुप रहा 
झूठ की गोदी में
विलासिता की बाहों में 
भूल गया सब कुछ 
यों कई बरसों अच्छे दरबारी रहने पर 
मिला है ये पुरुष्कार 
संतरियो की बड़ी कतार मेरे इर्द गिर्द 
झूठ को बचाने --सच को मारने का 
 है मेरे पास पूरा इन्तिज़ाम 
एक बार मारा देखो  मेने खुदको 
औ कहा से कहा 
पहुंचा में  आज ....
सीखो ..भाई ....सीखो 
छोड़ो सच की धूप
और आओ झूठ की इस छाँव ......

1 comment:

  1. सुन्दर पंक्तिया , सिचारों की अद्भुत श्रंखला बधाई

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