दरबारी सारे रोज की तरह चुप
राजा के गुस्से का कौन करे सामना
भरे दरबार कई बार आया सच
कॉलर पकड़ पकड़ मुझे झकझोरा
चीखा मुझ पर चिल्लाया
बोलने को मुझे उकसाया
मगर में रोज की तरह चुप रहा
झूठ की गोदी में
विलासिता की बाहों में
विलासिता की बाहों में
भूल गया सब कुछ
यों कई बरसों अच्छे दरबारी रहने पर
मिला है ये पुरुष्कार
संतरियो की बड़ी कतार मेरे इर्द गिर्द
झूठ को बचाने --सच को मारने का
है मेरे पास पूरा इन्तिज़ाम
एक बार मारा देखो मेने खुदको
औ कहा से कहा
पहुंचा में आज ....
सीखो ..भाई ....सीखो
छोड़ो सच की धूप
और आओ झूठ की इस छाँव ......
सुन्दर पंक्तिया , सिचारों की अद्भुत श्रंखला बधाई
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