किसी पहाड़ी सी उन्मुख
अल्हड ,बल खाती हुई
हंसी के आरोह अवरोह
अपने में समेटे
हरियाली में लिपटी
जंगल की भीनी भीनी
सुवास फैलाती
चोंकती हुई हिरनी सी
वो आई थी कभी मेरे पास
और में बहा था
उस पर
समय की बरसात का पानी लिए
झरना बन बिखरा था
सागर बन लहराया था
आज उसी के बुलावे
उड़ता हूँ वाष्प बन
और बिछ जाता हूँ
फिर उस पर बर्फ बन ......
यु हूँ में आज भी उसके संग !!
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