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Friday, July 1, 2011

पहुँच जाए यूँ

चुप चाप रेत की मानिंद 
फिसलता समय की मुट्ठी  से 
ये दिन 
जैसे झरता पत्ता 
पेड़ की डाल से ...
फिसलती रेत 
खींचती है शरीर को 
अहसास कराती हुई  
कि देह माटी है 
मिलेगी इसी माटी में 
झरता पत्ता इंगित करता है 
नए पात आयेंगे 
ये पेड़ हरा भरा रहेगा यू ही सदा 
दिन  के बाद आने वाली रात 
खुस्फुसाती है 
ये दिन कल फिर आयेगा 
मैं  इन सब बातो से परे 
सहज मुस्कुराता हूँ 
इस क्षण के संगीत में झूमता हूँ 
आओ झूमें हम सब 
इस गुजरते चलायमान क्षण के संगीत में 
इस क्षण हम सब एक साथ मुस्कुराये 
नाचे और आनंद की इस राग 
दुनिया को सँवारे
क्षण की पतवार के सहारे 
समय के सागर में
अपनी नाव को चलाते चलाते
पहुँच जाए यूँ
अपने प्रिय के पास !!

1 comment:

  1. बहुत ही शानदार है आपकी रचना,
    आभार,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

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