यह क्या कि कभी खुश ,कभी किसी आशंका में ,कभी दुःख में
खोता गया में खुद को हर पल
बहुत मांजते रहे मेरे संस्कार मुझे
मगर हर बार
मैं छूट भागा मूल्यों की दीवारे तोड़
आसमानी किताबो को भूल
इस सुख , दुःख, आशंका, भय के पोखर में गिरता रहा
अपने हिस्से के जीवन को नष्ट किया
और हर बार इस पोखर के अँधेरे में तय किया मेने
अब कभी नहीं गिरने दूंगा इस पोखर में खुदको
शायद वह गिरना ...और गिरने के बाद उभरी चेतना ने किया कमाल
कि अब में जीता हूँ ...ऐसे जैसे लहर जीती है सागर में
रेत जीती है रेगिस्तान में
हवा जीती है आसमान में
फूल और फल खिलते है पेड़ो पर
चिड़िया जीती है घोंसलों में
मैं यहाँ जी रहा हूँ
देखता ..निरखता ..खुद को ..
होता ...हर पल
बहुत ही सुन्दर रचना………बधाई।
ReplyDeleteBHAVPURN RACHNA,,,,,
ReplyDeleteJAI HIND JAI BHARAT