वो जो है अभी
शरीर भूल गया वो
आत्मा हो गया
देह से खुद की निकल
लोगो को अपनी देह
से निकाल नयी पहचान दे गया
कौन सोचे उसकी जो सबकी सोच रहा
पेड़ के नीचे मंदिर के प्रांगन
मिल गयी उसको कैसी निधि
भूख प्यास नहीं उसे
अपना पराया नहीं
राजनीति से परे
समय को खोये मूल्यों से मिला गया
अब हम नारों से बाहिर निकल
उसकी खुसबू से सराबोर हो
नयी दुनिया बनायेंगे
जो अब भी कुछ ना बदल पाए
तो शायद फिर कभी ना कोई आये
जो यूँ हमारे दर्द के लिए
खुद का दर्द भूल
हमें ऐसी खुशबू दे पाए........
जो अब भी कुछ ना बदल पाए
ReplyDeleteतो शायद फिर कभी ना कोई आये
जो यूँ हमारे दर्द के लिए
खूबसूरत संकेत....
सार्थक आवाहन
सादर...
अब हम नारों से बाहिर निकल
ReplyDeleteउसकी खुसबू से सराबोर हो
नयी दुनिया बनायेंगे
जो अब भी कुछ ना बदल पाए
तो शायद फिर कभी ना कोई आये
Sahmat.