विरह की धुंध से निकल
मिलन की उजली सुबह
पहुँच ही गया जल
फिर नदी में कलकल
छलछल नाचता फांदता
अपने उदगम से यू निसरता
जैसे सितार से ,किसी बांसुरी से
उस्ताद के तबले से
कुमार गन्धर्व के मुह से
निसरती हो राग
जानता है वाध्य यन्त्र
जानता है गायक
ये राग फिर बिछोह की ओर
ले जायेगी फिर सिमटेगी ये राग
यन्त्र में ,गले में क़ैद हो जायेंगे
फिर ये सुर ..खतम हो जाएगा ये गान
बचेगा झनझनाता ,कंपकंपाता ये समय
संवेदनाओं को जगाता
ये नदी भी जानती है
समां जायेगी फिर समद्र में
रह जाएगा रह रह आहें भरता ठंडी
ये पाट नदी का ......
बहुत बढिया रचना है बधाई।
ReplyDeleteसुन्दर भाव। शुभकामनायें।
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