बहुत अन्धकार में 
हाथ को न सूझे जहा हाथ 
प्यार मेरा उसको थामता है 
दबी हुई रुलाई 
हंसी में बदल भौचक हो जायेजैसे 
इस अकेले अँधेरे  में 
तुम आई हो  
एक गूंज की मानिंद 
निर्जन इमारतमें 
हरक़त होने लगी है  
बरामदे ,अहाते ,झरोखे ,जालियां 
गुम्बद ,तहखाने ,शयन कक्ष 
खुस्फुस्साते है हमें 
 भूलकर अपनी कहानिया 
रोशन हुआ है 
हर कोने फिर प्यार 
थामे रखना हाथ  
और घना करना अँधेरा 
चाँद तुम भी छुपे रहना 
इस अमावस जो फूटी है कोंपल 
वो बने कदम्ब का  वृक्ष 
 जहां  मिलते रहे कान्हा 
फिर फिर राधा से ....
 
 
राकेश जी,सुन्दर रचना है।
ReplyDeleteसुन्दर रचना!
ReplyDeleteदबी हुई रुलाई
ReplyDeleteहंसी में बदल भौचक हो जायेजैसे
इस अकेले अँधेरे में
तुम आई हो
एक गूंज की मानिंद...
Waah...