रात भर काटता रहा
शब्दों को लिख लिख
खुदको जोड़ता रहा
उस एक से
जो है मेरी आँखों की सीमाओं के पार
जानता हूँ
चुक जाते है शब्द
जब भी उसको सोचता हूँ
मगर फिर भी
अपनी इस टूटन की पुनरावृति से
न जाने कब बदल जाता हूँ
खुद से बाहिर निकल
उसकी काया में ....
शब्दों को लिख लिख
खुदको जोड़ता रहा
उस एक से
जो है मेरी आँखों की सीमाओं के पार
जानता हूँ
चुक जाते है शब्द
जब भी उसको सोचता हूँ
मगर फिर भी
अपनी इस टूटन की पुनरावृति से
न जाने कब बदल जाता हूँ
खुद से बाहिर निकल
उसकी काया में ....
उसकी काया मे समाहित हमारी काया
ReplyDeleteईश्वर कितना बड़ा हैं आज जान पाया हूँ