धुंधली सी एक रेख है
जिस पर दिन रात है
सांस एक आहट भी
देहलीज को चौंकाती है
कभी आशा में
निराशा में कभी
दरवाजे की कड़ियाँ बजाती है
कपडे चलते फिरते दौड़ते दीखते है
बुझे कोयले पर आई राख की तरह
स्थतियां चेहरे को ढांप
खेत के डरोने का रूप दे गयी है
मगर ये धुंधली सी रेख
जिस पर दिन से रात होती है
और फिर दिन आ जाता है
अभी तक सांस को चलाये हुए है
गहरे और गहरे में से निकलती निश्वास
अब भी कहती है
होगा कभी उजाला शायद ...........राकेश मूथा
जिस पर दिन रात है
सांस एक आहट भी
देहलीज को चौंकाती है
कभी आशा में
निराशा में कभी
दरवाजे की कड़ियाँ बजाती है
कपडे चलते फिरते दौड़ते दीखते है
बुझे कोयले पर आई राख की तरह
स्थतियां चेहरे को ढांप
खेत के डरोने का रूप दे गयी है
मगर ये धुंधली सी रेख
जिस पर दिन से रात होती है
और फिर दिन आ जाता है
अभी तक सांस को चलाये हुए है
गहरे और गहरे में से निकलती निश्वास
अब भी कहती है
होगा कभी उजाला शायद ...........राकेश मूथा
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