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Friday, July 4, 2014

नदियां जब भी रोई है यूँ

नदी बह रही है अब भी
पाट पर चाहे  उड़ रहो हो धूल
भीतर ही भीतर जैसे रोता  है कुवारा मन  
अपनी असमय की भूलों से खाकर ठोकर
नदी भी अपने किनारे पर बसी बस्तियों के प्यार में
लूट कर आज सिसकती सिसकती  रेंग रही है जमीन के नीचे
उड़ रही है धूल पाट पर और सूखे खेतो पर
 नदियां जब भी रोई है यूँ
ऐसे ही उजड़ी है बस्तियां  .....राकेश मूथा 

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