नदी बह रही है अब भी
पाट पर चाहे उड़ रहो हो धूल
भीतर ही भीतर जैसे रोता है कुवारा मन
अपनी असमय की भूलों से खाकर ठोकर
नदी भी अपने किनारे पर बसी बस्तियों के प्यार में
लूट कर आज सिसकती सिसकती रेंग रही है जमीन के नीचे
उड़ रही है धूल पाट पर और सूखे खेतो पर
नदियां जब भी रोई है यूँ
ऐसे ही उजड़ी है बस्तियां .....राकेश मूथा
पाट पर चाहे उड़ रहो हो धूल
भीतर ही भीतर जैसे रोता है कुवारा मन
अपनी असमय की भूलों से खाकर ठोकर
नदी भी अपने किनारे पर बसी बस्तियों के प्यार में
लूट कर आज सिसकती सिसकती रेंग रही है जमीन के नीचे
उड़ रही है धूल पाट पर और सूखे खेतो पर
नदियां जब भी रोई है यूँ
ऐसे ही उजड़ी है बस्तियां .....राकेश मूथा
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